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पर्यावरण संरक्षण और विकास का आपस में बहुत सुग्रथित सम्बन्ध है। वो इसलिए क्यूंकि शायद हमारे विकास के मौजूदा प्रतिमान ने पर्यावरण को बहुत नुक्सान पहुचाया है। पर मेरे विचार से पर्यावरण का संरक्षण भी उस हवाई विकास के जंजाल में हमको फसाने का एक नया तरीका मात्र है, असल ज़रूरत है पर्यावरण की रक्षा करने की । हमारी प्राथमिकता इलाज नहीं उस समस्या को रोकने की होनी चाहिए । पर्यावरण संरक्षण और मजूदा विकास में इसकी भूमिका को समझने के लिए हमें टिकाऊ विकास के पर्यावरणीय, सामाजिक और अर्थशास्त्रीय मॉडलों में GDP आधारित मॉडल को समझना भी ज़रूरी है जिसे बाद के खण्डों में विस्तृत रूप से समझाने का प्रयास किया गया है । इससे पहले पर्यावरण संरक्षण एवं विकास पर आधारित कुछ तथ्यों पर विचार कर लेना ज़रूरी है।
भारत: एक प्रकृति सेवक से विकास शील देश तक
सन 1730, ग्राम खेजरली-जोधपुर, राजस्थान में बिश्नोई प्रजाति के 363 पुरुष, महिलाएं एवं बच्चों ने पेड़ों की रक्षा करते हुए राजा के सिपाहिओं के हाथों अपनी जान गवाई। पर्यावरण की रक्षा के लिए ये वाक्या सम्पूर्ण विश्व के लिए एक प्रेरणास्रोत बनी और 19वीं सदी में इसी सोच ने भारत में ‘वन सत्याग्रह’ और ‘चिपको आंदोलन’ एवं कई देशों में ‘ट्री हग्गर’ के रूप में प्रकृति की रक्षा में जन आंदोलनों को मजबूती दी। हमारी सभ्यता प्राचीन काल से ही प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठा कर चलने वाले समाजों में से एक है, जिसने प्रकृति की रक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में रखने से भी तनिक नहीं सोचा। शायद उनको ये ज्ञात था कि प्रकृति के संतुलन में ही मानव जाती की भलाई और विकास है। पर्यावरणीय अवनति के प्रति असहिष्णुता भारत के प्राचीन लेखों में शामिल है, जिसमें मानव धर्म शास्त्र (मनु स्मृति) इस नज़रिये से विश्व भर में चर्चित है। हमारे आधुनिक युग के क़ानून जैसे पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 , वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 इत्यादि भी इन्हीं शास्त्रों के ही रूप लगते है।
इस बात से भी हम इंकार नहीं कर सकते कि वैश्वीकरण के युग ने न सिर्फ हमारे पर्यावरण को प्रदूषित किया बल्कि इससे हमारी जीवन शैली एवं हमारी संस्कृति भी प्रभावित हुई। जिस प्रकृति को हमने देवी देवताओं के रूप में सदिओं से पूजा आज हमने उसी को प्रदूषण से एवं प्रकृति ध्वंसी ‘टेक्नोलॉजी’ से पूरी तरह नष्ट किया या कर रहे है। हमारे सामने कुछ ऐसी चुनौतियाँ आई जिसको पैदा तो हमने किया लेकिन वो सब बहुत नया था, और जब तक हमारे पास इन पार्श्व प्रभावों को समझने की काबिलियत आई, बहुत देर हो चुकी थी। हम ऐसे मुकाम पर थे जहाँ से वापस जाना बहुत बड़ा जोखिम हो सकता था या फिर ऐसा समझ लीजिये कि वापसी का रास्ता बहुत कष्टकर था क्यूँकि हम उन सुविधाओं के आदि हो चुके थे और शहरी जीवन शैली से पाषाण युग में जाना शायद कोई पसंद नहीं करता। दूसरी समस्या ये भी थी की किसी ने भी इन बड़े पार्श्व प्रभावों के बारे में कभी कल्पना नहीं की थी क्यूंकि उस समय हमारा विज्ञान उतना विकसित नहीं हुआ था। आज ग्लोबल वॉर्मिंग या जल वायु परिवर्तन जैसे समस्याओं से सम्पूर्ण विश्व प्रभावित है। बांधों और बैराजों के निर्माण से जहाँ हमने बिजली पैदा की वहीँ हमने अपने नदिओं का गला घोंट दिया और उसमें रहने वाले मछलियाँ और अन्य जीवों को ख़त्म ही कर दिया । जिन जंगलों से हमारे आदिवासी भाई सैकड़ों सालों से अपना जीवन यापन करते आये है, हमने उनसे वो भी छीनना शुरू किया और उनको अपने पुश्तैनी जीवन एवं घर से जड़ से ही उखाड़ना शुरू कर दिया। जिस कृषि प्रधान देश में नदिओं के पानी द्वारा सिंचाई एवं उसके द्वारा बाढ़ में लाये गए उपजाऊ मिटटी से शुद्ध खेती होती थी आज वो पानी उद्योगों और शहरों के विकास के लिए मोड़ा जा रहा है, मिटटी के उपजाउता को बढ़ाने के लिए फ़र्टिलाइज़र और तमाम तरह के केमिकल छिड़के जा रहे है। इससे खेती तो बढ़ी लेकिन लोग कैंसर और कई अपंग बनाने वाले बिमारिओं के शिकार हुए, हमारा भूगर्भ जल स्तर इतना गिर गया कि हमारे बोरवेल पानी से साथ ज़हर उगलने लगा और पंजाब जैसे कृषि प्रधान राज्यों में किसान कैंसर जैसे गंभीर बिमारिओं से जूझ रहे है । बिजली भी मिली लेकिन शुद्ध हवा, शुद्ध जल एवं अप्रतिकार्य पर्यावरण प्रभाव के बदले में। और इन सब बातों का साक्षात प्रमाण हमें भारत के हर क्षेत्र में देखने को मिलता है , वैज्ञानिक रिपोर्ट भी मिलते है।
अब सवाल ये है कि क्या हमारा मौजूदा विकास का मॉडल जो कि उत्पादन आधारित है- जीवन स्तर एवं मानवीय ज़रूरतों को भी इस विकास में जगह दे पाएगा? स्वास्थ्य रहना भी ज़रूरी है, पर क्या आप गरीब और अनपढ़ बने रहना पसंद करेंगे? और अगर आपके पास आय का सुरक्षित जरिया आ जाता है तो क्या आप प्रदूषित हवा और गंदे पानी के साथ जीना पसंद करेंगे? संस्कार और धर्म का पालन भी ज़रूरी है पर क्या पर क्या आप उन सिद्धांतों के लिए अपने परिवार को भूखा रख पाएंगे? इन सभी प्रश्नों का उत्तर है- पर्यावरण संतुलन एवं सामाजिक संतुलन के महत्व को समझते हुए समावेशी विकास। जिस विकास से हमारे ज़रूरतों का पर्याप्त मात्रा में उपभोग भी हो, और हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए भी पर्याप्त संसाधन बच सके, इसी को हम टिकाऊ विकास का मूल आधार भी कह सकते है।
वर्तमान विकास में लाभार्थी और प्रभावित कौन ?
हम जब भी विकास की बात करते है, ये व्यापक रूप से आर्थिक विकास को दर्शाता है, जिसे कई बार गलत ढंग से जीवन की गुणवत्ता से भी जोड़ दिया जाता है। जिस GDP यानि ‘कुल घरेलू उत्पाद’ से इस विकास को हमारे देश में प्रमाणित किया जाता है, उसकी सबसे बड़ी कमी है उसमें सामाजिक एवं पर्यावरणीय कीमतों का न जुड़ना बल्कि उन दुष्प्रभावों को कम करने के लिए और संसाधनों का विकास करना जिससे GDP दर बढ़ती है । ये कहीं से भी पर्यावरण संरक्षक विकास नहीं है, अपितु हमारे मूल्यवान संसाधनों का हस्तांतरण मात्र है- गरीबों से अमीरों को। उदहारण के लिए सोनभद्र में कोयला आधारित कई थर्मल पॉवर प्लांट लगाये गए, वहाँ का वायु तो प्रदूषित किया ही, वहाँ के जल स्रोतों को भी ज़हरीला बना दिया गया। कोयला कंपनी को फायदा पंहुचा और बिजली बनाने वाली कंपनी ने भी मुनाफा कमाया। बिजली दी गयी उन तमाम बड़े कारखानों को और शहरी निवासिओं को, GDP के नज़रिये से यह एक सफल विकास का मॉडल माना जा सकता है ।
रिहंद बाँध, जो कि सिंचाई के लिए बनाया गया था क्षेत्र के किसानों को लाभ पहुचाने, सबसे पहले वहाँ के सैकड़ों किसानों को विस्थापित किया, उसके बाद रिहंद बाँध के आस पास कई कारखाने आने शुरू हुए। कोयले खदानों से वहां के जंगल, पहाड़ नष्ट हुए, भूगर्भ जल का स्तर भी गिरा एवं दूषित हुआ, वायु में प्रदूषण फैला, वहां की नदियां जो जीवनदायिनी थी आज कई तो लुप्त ही हो गए। सन 1950 से पहले सोनभद्र बहुत खुशहाल हुआ करता था, घने जंगल थे, वहाँ के आदिवासी पर्यावरण से अपना जीवन यापन करते थे, जीवन आत्म-निरंतर था और पर्यावरण की रक्षा वे अपना धर्म मान कर करते थे, पहाड़ों और जंगलों को पूजते थे । वन संरक्षण अधिनियम एवं पर्यावरण संरक्षण अधिनियम तो 1980 बाद में आया, इससे कहीं ज़्यादा सख्त कानून व्यवस्था यहां के वन निवासी समुदायों ने बनाया हुआ था जो सैकड़ों वर्षों से पालन करते आये है। आज आलम ये है कि रिहंद बाँध के पानी में पारा (Mercury) जैसे जहरीले भाड़ी धातु की मात्रा अत्यधिक हो गयी है, और ये वहां के खाद्य श्रृंखला में प्रवेश कर चुकी है और वहाँ के गरीब आदिवासी आज बुरी तरह प्रभावित है। क्या उनको इस विकास का फायदा मिला? दिल्ली जैसे शहर का पानी भी आज उतना ही प्रभावित है, यमुना का एक नज़ारा ही काफी है समझने के लिए। लेकिन शहरों में लोगों के पास संसाधन मौजूद है, आर. ओ., प्युर इट, एक्वागार्ड जैसे यंत्र अब आपको हर घर में देखने को मिल ही जाएगा, जिनके पास नहीं है वे बाजार से 20 लि. का बोतल 30 से 40 रूपये में खरीद सकते है। कुछ शहरों के पिछड़े इलाकों में तो वाटर-ATM की सुविधा भी लाइ जा रही है जहाँ 5 रूपये प्रति लीटर पेय जल की व्यवस्था भी दी जा रही है। पर सवाल ये है कि क्या ये सुविधाएं ओबरा, रेनुकूट और सोनभद्र के आदिवासिओं, किसानों और अन्य गरीब तबकों को कभी नसीब होगी या फिर वो कभी इस काबिल बन पाएंगे कि उन सुविधाओं को हासिल कर पाये? क्या वो दिन अब कभी आ पाएगा जब सिंचाई के लिए या फिर मछलिओं को पालने क लिए उनको रिहंद नदी का शुद्ध जल मिलेगा? उनके पास पीने के लिए वही दूषित हैण्डपम्प और सिंचाई के लिए वहीँ रिहंद बाँध का ज़हरीला पानी ही उपलब्ध है । हमने ना सिर्फ उनसे उनके शुद्ध वायु एवं जल को छीना, हमने उनकी रूढ़ि-गत आजीविका भी हमेशा के लिए छीन लिया। कभी आत्म निर्भर रहने वाले उन आदिवासिओं, किसानों और मछुआरों को हमने मूल ज़रूरतों जैसे पानी, अनाज, स्वास्थ्य चिकित्सा, इत्यादि के लिए सरकार की असफल नीतिओं या फिर उन मुनाफ़ाखोड़ कंपनिओं की सहानुभूति या कुछ संगठनों के झूठे वायदों पर छोड़ दिया और आगे बढ़ गए, देश विकसित होता रहा। और जब आज उस विकास के पार्श्व प्रभाव सोनभद्र जैसे सुदूर इलाकों से दिल्ली और अमरीका तक महसूस किया गया, गंगोत्री पिघलने लगा, सुंदरबन के टापू डूबने लगे, फेलिन-हुदहुद जैसे चक्रवातों का सिलसिला अक्सर महसूस किया जाने लगा तब हमें समझ आया कि शुतुरमुर्ग की तरह मुँह धक लेने से पर्यावरणीय प्रभाव से पृथ्वी में कोई नहीं बच सकता। तब बात आई टिकाऊ विकास या Sustainable Development की। और इसका सरासर मतलब था भारत जैसे विकासशील देशों में उद्योगों के विकास की प्रगति पर लगाम कसने की, क्यूंकि आज जो प्रभाव हम महसूस कर रहे है उनका प्रारम्भिक बल विकसित राष्ट्रों के द्वारा किये गए कार्बन उत्सर्जन को माना गया। लेकिन अब चूंकि ये बात समझ आ चुकी थी कि सम्पूर्ण पृथ्वी इस वायुमंडल से जुड़ा हुआ है, और पृथ्वी की वहन क्षमता अब और भार नहीं ले सकती, भारत जैसे देश की भूमिका बहुत अहम मानी गई । इसका एक कारण ये भी है कि हमने अबतक सहज जीवन जिया और मनुष्य के आध्यात्मिक एवं मानसिक विकास को भौतिकवादी विकास से कहीं अधिक तवज्जो दिया। परन्तु इस कारण हमलोग वैश्वीकरण के प्रति बहुत संवेदनशील भी थे, क्यूंकि ये उद्योगपतिओं के लिए खुला मैदान था, उनको बस उन भौतिक सुखों का बीज ही बोना था, और धीरे धीरे वो इस मंशे में सफल भी हो रहे है। कभी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने सुखों के लिए हमारा शोषण किया, और अब कॉर्पोरेट दलों ने हममें से ही कुछ धनवानों को उन भौतिक सुखों का आदि बनाया और फिर हमारे ही पर्यावरण को नुक्सान पहुंचा कर, हमारे ही संसाधनों को हमें बेचना शुरू किया। इस इंतियाज़ी विकास से जहां गरीबी और अमीरी का फर्क बढ़ता भी जा रहा है वहीँ पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंद दोहन और उसके प्रभाव भी बढ़ता जा रहा है। दिल्ली और लखनऊ जैसे शहरों का विकास तो यहां के संसाधनों के बल पर हो रहा है, लेकिन उस विकास का खामियाज़ा सोनभद्र जैसे पिछड़े इलाकों को झेलना पड़ता है, जहाँ के मूल निवासी आज 50 साल पुराने भारत से कहीं ज़्यादा बदतर स्थिति में है।
लघु अवधि विकास -दीर्घकालिक प्रभाव
किसी भी उत्पाद वादी विकास मॉडल में संसाधनों का दोहन होना ज़ाहिर सी बात है। ऐसे परियोजनाओं के लाभ को हम सीधा सीधा मौद्रिक लागत और परिणाम से परिकलित कर लेते है। इस बात का संयोग बहुत कम ही बनता है कि हम पर्यावरणीय कीमत एवं सामाजिक कीमतों को इसमें कभी जोड़ते भी है, परन्तु सबसे अहम बात ये है कि नुक्सान जो पहुचता है वह हमेशा के लिए हो जाता है, और उन प्राकृतिक स्थायी लाभों का फायदा आने वाले समय में आपको और आपके बच्चों को कभी नहीं मिलता। जैसे किसी बाँध की एक उम्र आंकी जाती है जबतक हमें उससे मौद्रिक फ़ायदा मिलता रहेगा, लेकिन उस फायदे के लिए हमें उस नदी और उसपर निर्भर प्राकृतिक लाभों का त्याग अनंतकाल के लिए करना पड़ता है। कोयले आधारित तापीय विद्युत घरों की उम्र लगभग 30 साल आंकी गई और ये भी माना जा चुका है कि कोयला लम्बे अरसे तक धारणीय ऊर्जा स्रोत नहीं है, और इसका प्रभाव वायुमंडल एवं स्थानीय जल स्रोतों पर अतिविशाल है। लेकिन हम उस कोयले आधारित बिजली पर अगर निर्भर करते है तो सबसे पहले अपने पुराने घने जंगलों का बलिदान देना पड़ता है, उन जंगलो और कोयले निहित जमीनों से हमारे निर्भर लोगों को जड़ से उखाड़ना पड़ता है और उनके आजीविका की लागत बढ़ जाती है । उसके दुष्प्रभाव तो वो झेलते ही है, साथ ही स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उस कोयले को बिजली घर तक पहुचाने में और फिर बिजली घरों से पर्यावरण और वहां के लोगों के आजीविका एवं स्वास्थ्य पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। और सिर्फ 30 साल की बिजली के लिए हम अपने सदिओं पुराने जंगल, नदियों का और संपन्न सभ्यताओं का अनंतकाल के लिए बलिदान दे देते है।
उदाहरण के लिए हम सोन नदी के वाह क्षेत्र की बात ही कर लेते है। 784 कि.मी. लम्बी सोन नदी की उत्पत्ति होती है मध्य प्रदेश से और ये उत्तर प्रदेश से होते हुए बिहार में गंगा में जाकर मिलती है। रिहंद, कनहर, कोयल नदियां इसकी मुख्य उपनदियों में से है। 1950 के बाद से सोन वाह क्षेत्र में कई उद्द्योग आये जिसमें थर्मल पॉवर प्लांट प्रमुख रहे, रिहंद बाँध (1962) इन्द्रपुरी बराज (1968), बाणसागर बाँध (2008) जैसे कई बड़े अभियांत्रिकी संरचनाएं विकसित हुए, जिन्होंने सोन के जल का अबाध रूप से दोहन करना शुरू किया, और आज भी कई ऐसे उद्योग विचाराधीन है। फ़रवरी, 2014 में केंद्रीय अंतर्देशीय मत्स्य अनुसंधान संस्थान, कोलकाता ने सोन नदी पर एक अनुसन्धान रिपोर्ट प्रकाशित किया। उस रिपोर्ट में पिछले 36 सालों के आकड़ों के विश्लेषण के बाद ये पाया गया कि सोन नदी का औसतन वार्षिक अपवाह सिर्फ 5.16% ही रह गया है और ये ‘गंभीर परिवर्तित’ (Critically Modified Stage F) स्थिति में है। सोन को सिर्फ ‘साधारण परिवर्तित’ स्थिति (Slightly Modified Stage C) में लाने के लिए 34.2% औसतन वार्षिक की ज़रूरत है। सोन नदी में मूल प्रजातिओं में से 20 प्रजाति अब पूरी तरह सोन से विलुप्त हो चुकी, और प्रवाह में प्रबल बदलाव के कारण 14 अन्यस्थानीय विदेशी प्रजाति की मछलियों की उपस्थिति मिली है। कुछ ऐसा ही हाल भारत के अन्य नदिओं और उपनदियों की भी है। ऐसे में ये सवाल का जवाब हमें खुद ढूंढ़ना पड़ेगा कि उस 30 साल बाद क्या हमें वो जंगल, वो नदियां और वो सारे प्राकृतिक लाभ पूर्वकालीन स्वरुप में वापस मिल पायेंगे? और क्या हम उनसे वो सारी सुविधाएं जो जीवन के लिए महत्वपूर्ण है ले पाएंगे?
इसी प्रभाव को कम करते हुए, पर्यावरण के संतुलन को बरक़रार रखते हुए और ये सुनिश्चित करते हुए क़ि हमारा पर्यावरण का दोहन इतना भी न हो कि वो अपने विषिस्ट गुण ही खो बैठे और आने वाले समय में उसका लाभ हमारे आने वाली पीढ़ीओं को भी मिले, और ना आज की अपनी ज़रूरतों के लिए किसी और का नुक्सान करे, ऐसे समावेशी विकास को ही हम टिकाऊ विकास मान सकते है।
टिकाऊ विकास के घटक
टिकाऊ विकास को पर्यवरण संरक्षण की दृष्टिकोण से ददखने के लिए पारिस्थितिकी तंत्र के 3 महत्वपूर्ण सिद्धांतों को समझना बहुत ज़रूरी है-
1. कोई भी जीव अधिक से अधिक संख्या में उत्पादन करने की क्षमता रखता है।
2. इस उत्पादन क्षमता का सीमित समय, जगह एवं ऊर्जा से एक निरन्तर टकराव चलता रहता है।
3. किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र का Resilience यानि अपने क्षति वाले स्थिति से वापस लौटने की क्षमता जैव विविधता पर निर्भर करती है।
इन 3 सिद्धांतों को अगर हम ध्यान में रखें तो हमें पहली बात अपनी जमसंख्या को control करना पड़ेगा और संसाधनों की खपत को कम करना पड़ेगा । हम किसी एक व्यक्ति या किसी एक समाज की ज़रूरतों पर आधारित विकास को टिकाऊ नहीं मान सकते। टिकाऊ विकास की आधारशीला है सम्पूर्ण पारिस्थितिकी तन्त्र के integrity को संरक्षित करके चलने की । तब हम मनुष्य, पेड़, नदियां, जंगल, पहाड़, और सभी जीव जन्तुओं को हमारे ही तन्त्र का एक हिस्सा मानते है एवं उसकी रक्षा करने को अपने जीवन की रक्षा समझकर करते है क्योंकि हम सब इससे जुड़े हुए है ।
अब हमारे पास टिकाऊ विकास को प्राप्त करने के लिए पर्यावरण संरक्षण के अनुसार 2 लक्ष्य है : पहला पारिस्थितिकी तन्त्र के integrity को बरकार रखने की ज़रूरत और दूसरा जैव विविधता की रक्षा करने की ज़रूरत । और इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए सबकी सहभागिता बहुत महत्वपूर्ण है । हम सब उस पृथ्वी के नाज़ुक तन्त्र से जूडॉ हुए है । इसमें सिर्फ एक समाज या जिला या राज्य ही नहीं सम्पूर्ण विश्व के देशों को प्रतिबद्ध करने की बात है । और ये दोनों ही लक्ष्य economist मॉडल से बहुत अलग है ।
अब जब हम इस विकास को पूरे तंत्र से जोड़कर देखेंगे तब हमें सामाजिक दृष्टिकोण को भी शामिल करना होगा । गरीबी के बढ़ने से, या फिर ग्रामीणों की आजीविका को नुक्सान पहुंचाने से पर्यावरणीय क्षति भी बढ़ती है । इसका प्रमुख कारण है विस्थापित परिवार जंगलों, जीव जन्तुओं एवम् सीमान्त इलाकों पर ज़्यादा दबाव उत्पन्न करता है । औरतों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और फलस्वरूप बच्चों के शारीरिक एवम् मानसिक विकास पर भी प्रभाव पड़ता है । ऐसी स्थिति में social justice, social equity और gender equity- intergenerational equity से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इसमें कल से ज़्यादा हमारे आज से जुड़ा हुआ सवाल है ।
आखिर में एक बात और कहना चाहूँगा कि टिकाऊ के लिए सिर्फ economist मॉडल, ecologist मॉडल और social मॉडल के नज़रिये से समझना या चर्चा करना ही काफी नहीं है । यह पूर्णतः हमारी नैतिकता, भावना, हमारी शिक्षा प्रणाली और एक बड़े स्तर पर प्रशासनिक एवम् राजनैतिक इच्छाशक्ति पर भी निर्भर है ।
अक्षय ऊर्जा का विकास एवम् कृषि क्षेत्र में संशोधनों से हमें खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की हमें बेहद ज़रूरत है । जंगलों की रक्षा को प्राथमिकता मिलनी चाहिए और छोटे छोटे वनों को जैव विविधता के पर्यावास के रूप में रक्षा करने की और उनको जोड़ने की आवश्यकताओं पर प्रशासनिक कोशिशें भी करनी पड़ेगी । Technology का उपयोग पर्यावरणीय प्रभावों को एवं संसाधनों के न्यूनतम नुक्सान पहुचाने पर होना चाहिए। ग्रामीणों का भी सम्पूर्ण विकास हो और संसाधनों का दुर्योपयोग या अत्याधिक दोहन ना हो इसके लिए हमें छोटे प्रशासनिक संस्थानों जैसे पंचायत/ ग्राम सभा को सशक्त करना होगा ।
‘पृथ्वी सभी मनुष्यों की ज़रुरत पूरी करने के लिए पर्याप्त संसाधन प्रदान करती है , लेकिन लालच पूरी करने के लिए नहीं ‘ ये भाव हम लोग बचपन से पढ़ते आ रहे है। टिकाऊ विकास के घटकों की बात करते है तो हमे गांधीजी की बातें याद आती है, भले ही हम में से कोई भी पूर्ण रूप से उनका अनुसरण आजके सन्दर्भ में शायद ही कर पाये। पर ज़रूरत है उस जीवनशैली को टिकाऊ विकास के आदर्शों के रूप में देखा जाए, और धीरे धीरे अपने जीवन में एवं अपने परिवार के ज़रिये समाज में एक मिसाल पेश किया जाए । गांधीजी की दूरदर्शिता और उनके सिद्धांतों का महत्व आज के समय में अच्छे से महसूस किया जा सकता है। उन्होंने संसाधनों के ज़रूरत के अनुकूल इस्तेमाल करने पर ज़ोर दिया और खादी ग्रामोद्योग और ग्राम स्वराज को बढ़ावा दिया । हमारा समाज आदर्श्वादिओं के अनुयायी बनने के लिए हमेशा से तैयार है, लेकिन कमी है तो एक सिद्ध नेतृत्व की।
(लेखक विंध्य बचाओ अभियान के संयोजक है एवं पर्यावरण विज्ञानं एवं प्रौद्योगिकी में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नाकोत्तर है। )
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